अपठित गद्यांश (अवतरण)/पद्यांश (Part-4)

Total Questions: 51

21. यदि किसी का ओर-छोर नहीं है, तो- [CTET Exam Ist Paper (I-V), 2015]

निर्देशः- नीचे दिए गए अपठित गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों (प्र.सं. 1 से 9) में सबसे उचित विकल्प चुनिए।

सारा संसार नीले गगन के तले अनन्त काल से रहता आया है। हम थोड़ी दूरी पर ही देखते हैं क्षितिज तक, जहाँ धरती और आकाश हमें मिलते दिखाई देते हैं। लेकिन जब हम वहाँ पहुँचते हैं, तो यह नजारा आगे खिसकता चला जाता है और इस नजारे का कोई ओर-छोर हमें नहीं दिखाई देता है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी है। जिन्दगी की न जाने कितनी उपमाएँ दी जा चुकी हैं, लेकिन कोई भी उपमा पूर्ण नहीं मानी गई, क्योंकि जिन्दगी के इतने पक्ष हैं कि कोई भी उपमा उस पर पूरी तरह फिट नहीं बैठती। 'बर्नार्ड शॉ' जीवन को एक खुली किताब मानते थे और यह भी मानते थे, कि सभी जीवों को समान रूप से जीने का हक है। वह चाहते थे, कि इन्सान अपने स्वार्थ में अन्धा होकर किसी दूसरे जीव के जीने का हक न मारे। यदि इन्सान ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा अन्याय है। हमारे विचार स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से मेल नहीं खाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को उसके जीने के हक से वंचित कर दें। यह खुला आसमान, यह प्रकृति और यह पूरा भू-मण्डल हमें दरअसल यही बता रहा है कि हाथी से लेकर चींटी तक, सभी को समान रूप से जीवन बिताने का हक है। जिस तरह से खुले आसमान के नीचे हर प्राणी बिना किसी डर के जीने, साँस लेने का अधिकारी है। उसी तरह से मानव-मात्र का स्वभाव भी होना चाहिए, कि वह अपने जीने के साथ दूसरों से उनके जीने का हक न छीने। यह आसमान हमें जिस तरह से भय से छुटकारा दिलाता है, उसी तरह से हमें भी मानव जाति से इतर जीवों को डर से छुटकारा दिलाकर उन्हें जीने के लिए पूरा अवसर देना चाहिए। दूसरों के जीने के हक को छीनने से बड़ा अपराध या पाप कुछ नहीं हो सकता।

Correct Answer: (b) उसकी सीमा नहीं है।
Solution:'किसी का ओर-छोर न होना' से तात्पर्य 'सीमाहीन', 'अनन्त', 'जिसकी कोई सीमा न हो' होता है।

22. 'फिट' और 'इंसान' शब्द हैं- [CTET Exam Ist Paper (I-V), 2015]

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सारा संसार नीले गगन के तले अनन्त काल से रहता आया है। हम थोड़ी दूरी पर ही देखते हैं क्षितिज तक, जहाँ धरती और आकाश हमें मिलते दिखाई देते हैं। लेकिन जब हम वहाँ पहुँचते हैं, तो यह नजारा आगे खिसकता चला जाता है और इस नजारे का कोई ओर-छोर हमें नहीं दिखाई देता है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी है। जिन्दगी की न जाने कितनी उपमाएँ दी जा चुकी हैं, लेकिन कोई भी उपमा पूर्ण नहीं मानी गई, क्योंकि जिन्दगी के इतने पक्ष हैं कि कोई भी उपमा उस पर पूरी तरह फिट नहीं बैठती। 'बर्नार्ड शॉ' जीवन को एक खुली किताब मानते थे और यह भी मानते थे, कि सभी जीवों को समान रूप से जीने का हक है। वह चाहते थे, कि इन्सान अपने स्वार्थ में अन्धा होकर किसी दूसरे जीव के जीने का हक न मारे। यदि इन्सान ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा अन्याय है। हमारे विचार स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से मेल नहीं खाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को उसके जीने के हक से वंचित कर दें। यह खुला आसमान, यह प्रकृति और यह पूरा भू-मण्डल हमें दरअसल यही बता रहा है कि हाथी से लेकर चींटी तक, सभी को समान रूप से जीवन बिताने का हक है। जिस तरह से खुले आसमान के नीचे हर प्राणी बिना किसी डर के जीने, साँस लेने का अधिकारी है। उसी तरह से मानव-मात्र का स्वभाव भी होना चाहिए, कि वह अपने जीने के साथ दूसरों से उनके जीने का हक न छीने। यह आसमान हमें जिस तरह से भय से छुटकारा दिलाता है, उसी तरह से हमें भी मानव जाति से इतर जीवों को डर से छुटकारा दिलाकर उन्हें जीने के लिए पूरा अवसर देना चाहिए। दूसरों के जीने के हक को छीनने से बड़ा अपराध या पाप कुछ नहीं हो सकता।

Correct Answer: (a) आगत
Solution:भाषा के प्रयोग के दौरान व्यक्ति द्वारा तत्सम, तद्भव, देशज, आगत शब्दों का प्रयोग किया जाता है। 'फिट' और 'इन्सान' आगत शब्दों के उदाहरण हैं। 'फिट' अँग्रेज़ी एवं 'इन्सान' अरबी भाषा का शब्द है।

23. बर्नार्ड शॉ ने जीवन की उपमा किससे दी है? [CTET Exam Ist Paper (I-V), 2015]

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सारा संसार नीले गगन के तले अनन्त काल से रहता आया है। हम थोड़ी दूरी पर ही देखते हैं क्षितिज तक, जहाँ धरती और आकाश हमें मिलते दिखाई देते हैं। लेकिन जब हम वहाँ पहुँचते हैं, तो यह नजारा आगे खिसकता चला जाता है और इस नजारे का कोई ओर-छोर हमें नहीं दिखाई देता है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी है। जिन्दगी की न जाने कितनी उपमाएँ दी जा चुकी हैं, लेकिन कोई भी उपमा पूर्ण नहीं मानी गई, क्योंकि जिन्दगी के इतने पक्ष हैं कि कोई भी उपमा उस पर पूरी तरह फिट नहीं बैठती। 'बर्नार्ड शॉ' जीवन को एक खुली किताब मानते थे और यह भी मानते थे, कि सभी जीवों को समान रूप से जीने का हक है। वह चाहते थे, कि इन्सान अपने स्वार्थ में अन्धा होकर किसी दूसरे जीव के जीने का हक न मारे। यदि इन्सान ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा अन्याय है। हमारे विचार स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से मेल नहीं खाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को उसके जीने के हक से वंचित कर दें। यह खुला आसमान, यह प्रकृति और यह पूरा भू-मण्डल हमें दरअसल यही बता रहा है कि हाथी से लेकर चींटी तक, सभी को समान रूप से जीवन बिताने का हक है। जिस तरह से खुले आसमान के नीचे हर प्राणी बिना किसी डर के जीने, साँस लेने का अधिकारी है। उसी तरह से मानव-मात्र का स्वभाव भी होना चाहिए, कि वह अपने जीने के साथ दूसरों से उनके जीने का हक न छीने। यह आसमान हमें जिस तरह से भय से छुटकारा दिलाता है, उसी तरह से हमें भी मानव जाति से इतर जीवों को डर से छुटकारा दिलाकर उन्हें जीने के लिए पूरा अवसर देना चाहिए। दूसरों के जीने के हक को छीनने से बड़ा अपराध या पाप कुछ नहीं हो सकता।

Correct Answer: (a) खुली पुस्तक से
Solution:बर्नार्ड शॉ ने जीवन की उपमा एक खुली किताब (पुस्तक) से की है।

24. हम बहुत बड़ा अन्याय कर रहे होते हैं, यदि - [CTET Exam Ist Paper (I-V), 2015]

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सारा संसार नीले गगन के तले अनन्त काल से रहता आया है। हम थोड़ी दूरी पर ही देखते हैं क्षितिज तक, जहाँ धरती और आकाश हमें मिलते दिखाई देते हैं। लेकिन जब हम वहाँ पहुँचते हैं, तो यह नजारा आगे खिसकता चला जाता है और इस नजारे का कोई ओर-छोर हमें नहीं दिखाई देता है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी है। जिन्दगी की न जाने कितनी उपमाएँ दी जा चुकी हैं, लेकिन कोई भी उपमा पूर्ण नहीं मानी गई, क्योंकि जिन्दगी के इतने पक्ष हैं कि कोई भी उपमा उस पर पूरी तरह फिट नहीं बैठती। 'बर्नार्ड शॉ' जीवन को एक खुली किताब मानते थे और यह भी मानते थे, कि सभी जीवों को समान रूप से जीने का हक है। वह चाहते थे, कि इन्सान अपने स्वार्थ में अन्धा होकर किसी दूसरे जीव के जीने का हक न मारे। यदि इन्सान ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा अन्याय है। हमारे विचार स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से मेल नहीं खाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को उसके जीने के हक से वंचित कर दें। यह खुला आसमान, यह प्रकृति और यह पूरा भू-मण्डल हमें दरअसल यही बता रहा है कि हाथी से लेकर चींटी तक, सभी को समान रूप से जीवन बिताने का हक है। जिस तरह से खुले आसमान के नीचे हर प्राणी बिना किसी डर के जीने, साँस लेने का अधिकारी है। उसी तरह से मानव-मात्र का स्वभाव भी होना चाहिए, कि वह अपने जीने के साथ दूसरों से उनके जीने का हक न छीने। यह आसमान हमें जिस तरह से भय से छुटकारा दिलाता है, उसी तरह से हमें भी मानव जाति से इतर जीवों को डर से छुटकारा दिलाकर उन्हें जीने के लिए पूरा अवसर देना चाहिए। दूसरों के जीने के हक को छीनने से बड़ा अपराध या पाप कुछ नहीं हो सकता।

Correct Answer: (c) किसी को जीने का अधिकार नहीं देते
Solution:हम बहुत बड़ा अन्याय कर रहे होते हैं, जब हम किसी को जीने का अधिकार नहीं देते तथा अपने स्वार्थ में अन्धा होकर दूसरे के हक का उपयोग करते हैं।

25. प्रकृति और खुला आसमान बता रहे हैं कि सबको - [CTET Exam Ist Paper (I-V), 2015]

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सारा संसार नीले गगन के तले अनन्त काल से रहता आया है। हम थोड़ी दूरी पर ही देखते हैं क्षितिज तक, जहाँ धरती और आकाश हमें मिलते दिखाई देते हैं। लेकिन जब हम वहाँ पहुँचते हैं, तो यह नजारा आगे खिसकता चला जाता है और इस नजारे का कोई ओर-छोर हमें नहीं दिखाई देता है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी है। जिन्दगी की न जाने कितनी उपमाएँ दी जा चुकी हैं, लेकिन कोई भी उपमा पूर्ण नहीं मानी गई, क्योंकि जिन्दगी के इतने पक्ष हैं कि कोई भी उपमा उस पर पूरी तरह फिट नहीं बैठती। 'बर्नार्ड शॉ' जीवन को एक खुली किताब मानते थे और यह भी मानते थे, कि सभी जीवों को समान रूप से जीने का हक है। वह चाहते थे, कि इन्सान अपने स्वार्थ में अन्धा होकर किसी दूसरे जीव के जीने का हक न मारे। यदि इन्सान ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा अन्याय है। हमारे विचार स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से मेल नहीं खाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को उसके जीने के हक से वंचित कर दें। यह खुला आसमान, यह प्रकृति और यह पूरा भू-मण्डल हमें दरअसल यही बता रहा है कि हाथी से लेकर चींटी तक, सभी को समान रूप से जीवन बिताने का हक है। जिस तरह से खुले आसमान के नीचे हर प्राणी बिना किसी डर के जीने, साँस लेने का अधिकारी है। उसी तरह से मानव-मात्र का स्वभाव भी होना चाहिए, कि वह अपने जीने के साथ दूसरों से उनके जीने का हक न छीने। यह आसमान हमें जिस तरह से भय से छुटकारा दिलाता है, उसी तरह से हमें भी मानव जाति से इतर जीवों को डर से छुटकारा दिलाकर उन्हें जीने के लिए पूरा अवसर देना चाहिए। दूसरों के जीने के हक को छीनने से बड़ा अपराध या पाप कुछ नहीं हो सकता।

Correct Answer: (c) जीने का हक है
Solution:प्रकृति और खुला आसमान बता रहे हैं कि सबको समान रूप से जीवन जीने का हक है।

26. आसमान हमें दिलाता है - [СТЕТ Exam Ist Paper (I-V), 2015]

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सारा संसार नीले गगन के तले अनन्त काल से रहता आया है। हम थोड़ी दूरी पर ही देखते हैं क्षितिज तक, जहाँ धरती और आकाश हमें मिलते दिखाई देते हैं। लेकिन जब हम वहाँ पहुँचते हैं, तो यह नजारा आगे खिसकता चला जाता है और इस नजारे का कोई ओर-छोर हमें नहीं दिखाई देता है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी है। जिन्दगी की न जाने कितनी उपमाएँ दी जा चुकी हैं, लेकिन कोई भी उपमा पूर्ण नहीं मानी गई, क्योंकि जिन्दगी के इतने पक्ष हैं कि कोई भी उपमा उस पर पूरी तरह फिट नहीं बैठती। 'बर्नार्ड शॉ' जीवन को एक खुली किताब मानते थे और यह भी मानते थे, कि सभी जीवों को समान रूप से जीने का हक है। वह चाहते थे, कि इन्सान अपने स्वार्थ में अन्धा होकर किसी दूसरे जीव के जीने का हक न मारे। यदि इन्सान ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा अन्याय है। हमारे विचार स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से मेल नहीं खाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को उसके जीने के हक से वंचित कर दें। यह खुला आसमान, यह प्रकृति और यह पूरा भू-मण्डल हमें दरअसल यही बता रहा है कि हाथी से लेकर चींटी तक, सभी को समान रूप से जीवन बिताने का हक है। जिस तरह से खुले आसमान के नीचे हर प्राणी बिना किसी डर के जीने, साँस लेने का अधिकारी है। उसी तरह से मानव-मात्र का स्वभाव भी होना चाहिए, कि वह अपने जीने के साथ दूसरों से उनके जीने का हक न छीने। यह आसमान हमें जिस तरह से भय से छुटकारा दिलाता है, उसी तरह से हमें भी मानव जाति से इतर जीवों को डर से छुटकारा दिलाकर उन्हें जीने के लिए पूरा अवसर देना चाहिए। दूसरों के जीने के हक को छीनने से बड़ा अपराध या पाप कुछ नहीं हो सकता।

Correct Answer: (b) भय से छुटकारे का आश्वासन
Solution:आसमान हमें भय से छुटकारे का आश्वासन दिलाता है।

27. किस शब्द में 'इक' प्रत्यय का प्रयोग नहीं किया जा सकता ? [CTET Exam Ist Paper (I-V), 2015]

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सारा संसार नीले गगन के तले अनन्त काल से रहता आया है। हम थोड़ी दूरी पर ही देखते हैं क्षितिज तक, जहाँ धरती और आकाश हमें मिलते दिखाई देते हैं। लेकिन जब हम वहाँ पहुँचते हैं, तो यह नजारा आगे खिसकता चला जाता है और इस नजारे का कोई ओर-छोर हमें नहीं दिखाई देता है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी है। जिन्दगी की न जाने कितनी उपमाएँ दी जा चुकी हैं, लेकिन कोई भी उपमा पूर्ण नहीं मानी गई, क्योंकि जिन्दगी के इतने पक्ष हैं कि कोई भी उपमा उस पर पूरी तरह फिट नहीं बैठती। 'बर्नार्ड शॉ' जीवन को एक खुली किताब मानते थे और यह भी मानते थे, कि सभी जीवों को समान रूप से जीने का हक है। वह चाहते थे, कि इन्सान अपने स्वार्थ में अन्धा होकर किसी दूसरे जीव के जीने का हक न मारे। यदि इन्सान ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा अन्याय है। हमारे विचार स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से मेल नहीं खाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को उसके जीने के हक से वंचित कर दें। यह खुला आसमान, यह प्रकृति और यह पूरा भू-मण्डल हमें दरअसल यही बता रहा है कि हाथी से लेकर चींटी तक, सभी को समान रूप से जीवन बिताने का हक है। जिस तरह से खुले आसमान के नीचे हर प्राणी बिना किसी डर के जीने, साँस लेने का अधिकारी है। उसी तरह से मानव-मात्र का स्वभाव भी होना चाहिए, कि वह अपने जीने के साथ दूसरों से उनके जीने का हक न छीने। यह आसमान हमें जिस तरह से भय से छुटकारा दिलाता है, उसी तरह से हमें भी मानव जाति से इतर जीवों को डर से छुटकारा दिलाकर उन्हें जीने के लिए पूरा अवसर देना चाहिए। दूसरों के जीने के हक को छीनने से बड़ा अपराध या पाप कुछ नहीं हो सकता।

Correct Answer: (d) भय
Solution:भय में 'इक' प्रत्यय का प्रयोग नहीं किया जा सकता है, जबकि जीव, स्वभाव एवं प्रकृति में 'इक' प्रत्यय के प्रयोग से क्रमशः जैविक, स्वाभाविक एवं प्राकृतिक शब्द की उत्पत्ति होती है।

28. 'अपराध' शब्द है - [CTET Exam Ist Paper (I-V), 2015]

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सारा संसार नीले गगन के तले अनन्त काल से रहता आया है। हम थोड़ी दूरी पर ही देखते हैं क्षितिज तक, जहाँ धरती और आकाश हमें मिलते दिखाई देते हैं। लेकिन जब हम वहाँ पहुँचते हैं, तो यह नजारा आगे खिसकता चला जाता है और इस नजारे का कोई ओर-छोर हमें नहीं दिखाई देता है। ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी है। जिन्दगी की न जाने कितनी उपमाएँ दी जा चुकी हैं, लेकिन कोई भी उपमा पूर्ण नहीं मानी गई, क्योंकि जिन्दगी के इतने पक्ष हैं कि कोई भी उपमा उस पर पूरी तरह फिट नहीं बैठती। 'बर्नार्ड शॉ' जीवन को एक खुली किताब मानते थे और यह भी मानते थे, कि सभी जीवों को समान रूप से जीने का हक है। वह चाहते थे, कि इन्सान अपने स्वार्थ में अन्धा होकर किसी दूसरे जीव के जीने का हक न मारे। यदि इन्सान ऐसा करता है, तो यह बहुत बड़ा अन्याय है। हमारे विचार स्वाभाविक रूप से एक-दूसरे से मेल नहीं खाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि हम दूसरों को उसके जीने के हक से वंचित कर दें। यह खुला आसमान, यह प्रकृति और यह पूरा भू-मण्डल हमें दरअसल यही बता रहा है कि हाथी से लेकर चींटी तक, सभी को समान रूप से जीवन बिताने का हक है। जिस तरह से खुले आसमान के नीचे हर प्राणी बिना किसी डर के जीने, साँस लेने का अधिकारी है। उसी तरह से मानव-मात्र का स्वभाव भी होना चाहिए, कि वह अपने जीने के साथ दूसरों से उनके जीने का हक न छीने। यह आसमान हमें जिस तरह से भय से छुटकारा दिलाता है, उसी तरह से हमें भी मानव जाति से इतर जीवों को डर से छुटकारा दिलाकर उन्हें जीने के लिए पूरा अवसर देना चाहिए। दूसरों के जीने के हक को छीनने से बड़ा अपराध या पाप कुछ नहीं हो सकता।

Correct Answer: (d) भाववाचक संज्ञा
Solution:'अपराध' शब्द भाववाचक संज्ञा का उदाहरण है। बुढ़ापा, मिठास, बचपन तथा थकावट अन्य भाववाचक संज्ञा के उदाहरण हैं।

29. सम्प्रेषण-कला क्या नहीं है? [UP-TET Exam Ist Paper (I-V), 2018]

निर्देशः- (प्रश्न सं. 1 और 2) दिए गए अपठित गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के सही विकल्प छाँटिए।

स्पष्टता, आत्म-विश्वास, विषय की अच्छी पकड़ और प्रभावशाली भाषा में अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करना ही सम्प्रेषण-कला है, जो निरन्तर अभ्यास से निखारी जा सकती है। एक दिन में कोई अच्छा वक्ता नहीं बन सकता तथा भाषा पर अनायास ही किसी की पकड़ नहीं हो पाती। इसी अभ्यास से स्वामी विवेकानन्द ने जिस सम्प्रेषण-कला का विकास किया था, उसने विश्वधर्म सम्मेलन में लाखों अमेरिका-निवासियों को चकित और मोहित कर दिया था।

 

Correct Answer: (a) अलंकरण
Solution:गद्यांश की प्रथम से द्वितीय पंक्ति में यह स्पष्ट उल्लेख है कि स्पष्टता, आत्म-विश्वास, विषय की अच्छी पकड़ और प्रभावशाली भाषा में अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करना ही सम्प्रेषण-कला है। अतः स्पष्ट है कि अलंकरण सम्प्रेषण-कला नहीं है।

30. सम्प्रेषण-कला का विकास किससे होता है? [UP-TET Exam Ist Paper (I-V), 2018]

निर्देशः- (प्रश्न सं. 1 और 2) दिए गए अपठित गद्यांश को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों के सही विकल्प छाँटिए।

स्पष्टता, आत्म-विश्वास, विषय की अच्छी पकड़ और प्रभावशाली भाषा में अपने विचारों और भावनाओं को व्यक्त करना ही सम्प्रेषण-कला है, जो निरन्तर अभ्यास से निखारी जा सकती है। एक दिन में कोई अच्छा वक्ता नहीं बन सकता तथा भाषा पर अनायास ही किसी की पकड़ नहीं हो पाती। इसी अभ्यास से स्वामी विवेकानन्द ने जिस सम्प्रेषण-कला का विकास किया था, उसने विश्वधर्म सम्मेलन में लाखों अमेरिका-निवासियों को चकित और मोहित कर दिया था।

 

Correct Answer: (a) अभ्यास
Solution:गद्यांश के पठन से स्पष्ट है कि सम्प्रेषण-कला का विकास अभ्यास से होता है।