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उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में सोरठा छन्द है, जो भक्तिकालीन कवि तुलसीदास द्वारा रचित है।
'सोरठा' मात्रिक अर्धसम छन्द है और दोहे का उल्टा होता है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 11 मात्राएँ होती हैं तथा द्वितीय एवं चतुर्थ में 13-13 मात्राएँ होती हैं।
सोरठा मात्रिक अर्धसम छन्द है, जो दोहे का उल्टा होता है। इस छन्द के विषम चरणों में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं। अर्थात् प्रथम और तीसरे चरण में 11-11 तथा दूसरे और चौथे चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं।
मात्रा या शिल्पगत आधार पर दोहे का ठीक उल्टा छन्द 'सोरठा' है। यह अर्धसम मात्रिक छन्द है। इसके विषम पदों में 11-11 तथा सम पदों में 13-13 मांत्राएँ होती हैं। दोहा भी अर्धसम मात्रिक छन्द है, किन्तु इसके विषम पदों में 13-13 तथा सम पदों में 11-11 मात्राएँ होती हैं।
मात्रा की दृष्टि से दोहा के ठीक विपरीत 'सोरठा' होता है। सोरठा अर्धसम मात्रिक छन्द है। इस छन्द के विषम चरणों में 11 मात्राएँ और सम चरणों में 13 मात्राएँ होती हैं। तुक प्रथम और तृतीय चरणों में होती है।
सोरठा अर्धसम मात्रिक छन्द है इसके विषम पदों में 11-11 तथा सम पदों में 13-13 मात्राएँ होती हैं।
जानि गौरि अनुकूल, सिय-हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल, वाम अंग फरकन लगे।।
प्रस्तुत पंक्ति में सोरठा छन्द है। यह दोहे का ठीक उल्टा होता है।
प्रस्तुत पंक्तियों में सोरठा छन्द है। सोरठा छन्द के विषम चरणों में 11 मात्राएँ और सम चरणों में 13 मात्राएँ होती हैं।
'कुण्डलिया' विषम मात्रिक संयुक्त छन्द है। दोहा और रोला छन्दों को मिलाने से यह छन्द बनता है। इसमें 6 चरण होते हैं। इस छन्द में प्रथम दो पंक्तियाँ दोहा की एवं अन्तिम चार पंक्तियाँ रोला की होती हैं। दोहे का अन्तिम चरण अर्थात् चौथा चरण रोले के प्रथम चरण में दुहराया जाता है तथा दोहे के प्रारम्भ का शब्द रोले के अन्त में आता है। प्रत्येक चरण में 24-24 मात्राएँ होती हैं।
दोहा तथा रोला छन्द को मिलाने से 'कुण्डलिया' छन्द बनता है। इस छन्द का आरम्भ जिस शब्द से होता है, अन्त भी उसी शब्द से होता है।