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जो किए गए उपकार को नहीं मानता वह
(i) चारु-चन्द्र की चंचल किरणें खेल रही थीं जलथल में
(11) पूत सपूत तो क्यों धन संचै, पूत कपूत तो क्यों धन संचै
(iii) कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय
(iv) वन्दौ गुरु पद पदुम परागा, सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।
कनक-कनक ते सौ गुनी - इस पद में यमक अलंकार हैं। जहाँ एक ही शब्द दो भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है वहाँ यमक अलंकार होता है। यहाँ पहली बार कनक शब्द का अर्थ 'सोना' तथा दूसरी बार 'धतूरे' के रूप में प्रयुक्त हुआ है।
'चेतन' का विलोम 'जड़' है।
'गतिशील' का विलोम 'अशक्त' है।