दिए गए गद्यांश के आधार पर प्रश्न के उत्तर दें।
हिंदी के इस आरम्भिक साहित्य में धार्मिक और ऐहिक तत्त्व एक-दूसरे में घुले-मिले हैं। सिद्धों-नाथों में यह मिलावट अधिक है। आगे चलकर रासो-साहित्य और विद्यापति में ऐहिकता का स्वर प्रबल होता जाता है। फिर मिलावट का एक दूसरा रूप रासो-साहित्य में द्रष्टव्य है जहाँ वीर और श्रृंगार एक-दूसरे में मिलते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल को वीरगाथा काल नाम बहुत समझ-बूझ कर दिया है। इनकी दृष्टि में इस काल का केंद्रीय साहित्य रासो-काव्य है न कि सिद्ध-नाथों की बानियाँ। यह बानियाँ धर्म और कर्मकांड के प्रभाव में अधिक है, साहित्य का ऐहिक रूप वहाँ कम ही है। फिर भाषा की दृष्टि से हिंदी की वास्तविक शुरुआत जितने स्पष्ट रूप से रासो में दिखाई देती है उतनी इन अपभ्रंश आधारित बानियों में नहीं, जहाँ संस्कृत विभक्ति का अवशिष्ट रूप ह से बने रूपों में (सरहिं, भुयणिहिं) दिखाई देता है, और स्वतंत्र परसर्ग अभी विकसित नहीं हुए हैं। फिर आचार्य शुक्ल के नामकरण में 'वीर' शब्द ही नहीं 'गाथा' का भी विशिष्ट अर्थ हैं। 'गाथा' के साथ शौर्य और 'शिवैलरी' के तत्त्व जुड़े हुए हैं, जहाँ वीर का प्ररेक भाव अनिवार्य रूप से श्रृंगार है। यों, वीरगाथा में वीर और श्रृंगार एक युग्म के रूप में चित्रित होते हैं। धर्म और ऐहिकता, फिर ऐहिकता में वीर और श्रृंगार अंतर्भाव-लगता है ईश्वर की परिकल्पना में मनुष्य को सिरजा जा रहा है। महान् और उदात्त, वीर और तेजस्वी। जबकि आगे भक्ति-काल में ईश्वर की परिकल्पना में मनुष्य को मनुष्य के रूप में सिरजा गया। महान् और उदात्त, वीर और तेजस्वी। जबकि आगे भक्ति-काल में ईश्वर को मनुष्य के रूप में सिरजा गया। माखन चोरी करते, ऊखल से बाँधे जाते और प्रिया के बिरह में विलपते।
Correct Answer: (c) वीर एवं ओजपूर्ण
Solution:गद्यांश के अनुसार भक्तिकाल में ईश्वर को 'वीर एवं ओजपूर्ण' के रूप में प्रदर्शित नहीं किया गया है।