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प्राचीन भारत की विश्वोत्पत्ति विषयक धारणाओं के अनुसार, चार युगों के चक्र का क्रम इस प्रकार है-कृत (सतयुग), त्रेता, द्वापर एवं कलियुग ।
प्राचीन भारत में मत्तमयूर नामक शैव संप्रदाय का उल्लेख मिलता है।
प्राचीन काल में अर्द्धनारीश्वर के रूप में भी शिव की कल्पना की गई, जो पुरुष एवं प्रकृति अथवा देव और उसकी शक्ति के योग को दर्शाता है। शिव और पार्वती की संयुक्त मूर्तियां गुप्त-युग में और उसके परवर्ती युग में विशेष रूप से उकेरी गईं। इसी संयोग का वर्णन कालिदास ने कुमारसम्भवम् में अत्यंत यत्नपूर्वक किया है। शिव और पार्वती का परस्पर इतना तादात्म्य हुआ कि दोनों की सन्निहित मूर्ति 'अर्द्धनारीश्वर' के रूप में समाज में चल पड़ी।
पूर्व मध्यकाल में भक्ति भावना का प्रचार-प्रसार मुख्यतः दक्षिण भारत में विशेषकर तमिल भाषी क्षेत्र में हुआ। तमिल भाषी क्षेत्र में भक्ति भावना को लोकप्रिय बनाने में दो संप्रदायों की प्रमुख भूमिका रही। भगवान विष्णु की उपासना करने वाले विष्णु भक्त अलवार कहलाए और शिव की उपासना करने वाले शिव भक्त नयनार कहलाए। इन्होंने ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत प्रेम और समर्पण से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया और जाति प्रथा एवं इसकी कठोरता का विरोध किया।
पोयगई, पूडम एवं तिरुमंगई अलवार संत थे, जबकि तिरुज्ञान नयनार संत थे।
भागवत अथवा वैष्णव धर्म का चरमोत्कर्ष गुप्त राजाओं के शासनकाल में हुआ। गुप्त नरेश वैष्णव मतानुयायी थे तथा उन्होंने इसे अपना राजधर्म बनाया था। अधिकांश गुप्त शासक 'परमभागवत' की उपाधि धारण करते थे। विष्णु का वाहन 'गरुड़' गुप्तों का राजचिह्न था।
परंपरानुसार भागवत धर्म के प्रवर्तक वृष्णि (सात्वत) वंशी कृष्ण थे, जिन्हें वसुदेव का पुत्र होने के कारण वासुदेव कृष्ण कहा जाता है। वे मूलतः मथुरा के निवासी थे। छांदोग्य उपनिषद में उन्हें देवकी-पुत्र तथा घोर अंगिरस का शिष्य बताया गया है।
वैष्णव धर्म का प्रारंभिक रूप भागवत धर्म के अंतर्गत देवकी-पुत्र भगवान वासुदेव कृष्ण के पूजन में दर्शित होता है, जो संभवतः छठी सदी ई.पू. के पहले स्थापित हो चुका था। वासुदेव जो कृष्ण का प्रारंभिक नाम था, पाणिनि के युग में प्रचलित था। उस युग में वासुदेव की उपासना करने वाले 'वासुदेवक' (भागवत) कहे जाते थे।